पश्चाताप

कुछेक रोज़ अंधेरों का शौक क्या पाला ;
तमाम उम्र उजालों से हाथ धो डाला .

गुरूर चार दिन का ओढ़ लिया था मैंने ;
सुकून ज़िन्दगी भर का तभी से खो डाला .

चाह मुझमें भी नगीनों की थी मगर मैंने ;
खान में घुस के कभी ख़ाक को नहीं चाला .

धूप से बच के निकलने को हुनर क्या माना ;
फिर कभी छाँव से हरगिज़ नहीं पड़ा पाला .

खिड़कियाँ मैंने अपने घर में बनाईं ही नहीं ;
बेवजह रौशनी के सिर पे दोष मढ़ डाला .

वक्त जब हाथ में था मैंने तवज्जो न करी ;
वक्त ने रूठ के मेरा मज़ाक कर डाला .

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