सूरज का सामना..

तो हवा के छूने का एहसास हुवा.
कुछ चमक सूरज की -
आँखों को चका-चोंध करने लगी.
आंखें खुलने से पहले ही बंद होती दिखीं.
हम फिर से छाँव ढूंढ़ने लगे,
किसी मज़बूत पेड़ की आड़ में छुपने लगे.
अचानक किसी ने हाथ थामा-
और जोर से खींचा.
हम फिर से सूरज का सामना करने लगे,
आंखें टकराई तो देखा!
नई सुबह ने हाथ खीचा था.
वो मुस्कराकर कह रही थी, पगले!
ये ही है वो ख़जाना, जिसको-
तूने अब पाया है.
घुटन का हर वो ज़माना,
जब तू मार के आया है.
घबरा मत! एक टक देखता जा,
हर चमक तेरे से टकरा कर-
खुद झुक जायेगी.
हर मदहोश हवा तुझे पाके खुश हो जाएगी,
एक-दर-एक सीढ़ियाँ चढ़ता जा,
होसलों को और बुलंद करता जा,
बेरोकटोक बढ़ता जा – क्यूंकि-
तुझे सूरज के करीब नहीं पहुँचना-
खुद सूरज बनना है.
फिर किसी के लिए तेज़ चमक बनना है.
हर वो, जो उस पेड़ की आड़ में खड़ा रहेगा?
तुझे उसका सामना करना है.
मैं तो हर रोज़ तुझे यहीं मिलूंगी,
तेरे इंतजार में,
नई चेतना बन कर.
नया एहसास बन कर.
नई तमन्ना बन कर.

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