क्यों



क्यों रहता हूँ यूँ बेमतलब औरों के साथ,
बातें न कर लूं खुद से, ये हो सकता है शायद।



कैसी है उलझन, कैसी है ये बेचैनी

मन तड़पता भी है और लगता भी...



क्यों है होता परिवर्तन ऐसा, मैं, तुम, सारा जग है बदला

पर क्यों वो सूरज, न चंदा, न एक तारा है बदला,
थे वो जैसे अब तक हैं वैसे, और नित्य रहेंगे...
पर हम-तुम कल न होंगे, फिर क्यों सारा जग है बदला।






वो खिड़कियों से झांकना ही अच्छा था, इस गलियारे में आने से
वो सपनो में हँसना ही अच्छा था, इस अंधियारे में आने से।






दूसरों में डूब जो लूं , तो रास्ता मिल जाए खुद को भुलाने के लिए,
मगर यहाँ तो हर एक भागा फिर रहा है, खुद से दूर जाने के लिए।






झूम उठती थी फिजा हर एक बात पर
अब तो न वो बातें रही और न हम
सुर से बहकी कुछ इस कदर ज़िन्दगी मेरी
लौट सके न वो पल और न हम...



क्या था मैं और क्या हो गया हूँ

था मैं ऐसा या खुद को खो गया हूँ...



जिस पल चाहूँ उसको

उस पल वो रहता नहीं
जिस पल पाऊँ उसको
वो पल मेरा होता नहीं






कुछ दबा पड़ा निकल ही जाता है
लाख छुपा लो उन्हें सीने में..
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